Sunday, May 31, 2020

न्यूनतम मासिक आय यानी यूनिवर्सल बेसिक इनकम - समय की मांग
क्या मुफ्त में पैसे देना फिजूल है या  गरीबी से लड़ने का सबसे बड़ा समाधान?

"गरीब इसलिए गरीब नहीं है कि वह पैसे नहीं संभाल सकता बल्कि इसलिए गरीब है क्यूंकि उसके पास संभालने के लिए पैसे ही नहीं है।" 
photo: Sentinel

क्या होता है यूनिवर्सल बेसिक इनकम : यूनिवर्सल बेसिक इनकम अथवा न्यूनतम मासिक आय का अर्थ है- सरकार की तरफ से देश के हर नागरिक को एक निश्चित मासिक आय देना। स्वतंत्रता पूर्व 1938 में भी इस पर विचार किया गया था।तब से लेकर अब तक हर कुछ समय बाद यह चर्चा में आता तो है लेकिन बस चर्चा का विषय बन कर ही रह जाता है। सिक्किम में इसे लेकर प्रस्ताव आया है और अगर यह पारित होता है तो  ऐसा करने वाला यह देश का पहला राज्य होगा। 2016-17 के आर्थिक सर्वेक्षण में भी इसका जिक्र हो चुका है। 
लेकिन कोरोना महामारी के दौरान भारत समेत पूरे विश्व में आर्थिक और सामाजिक संकट आने के साथ ही यह विषय वापिस चर्चा में है। कई बुद्धिजीवियों और समाज शास्त्रियों का मानना है कि जिस तरह लोग गरीबी भूख और अन्य असुविधाओं से जूझ रहे हैं, यह योजना मौजूद होती तो इतने लोग गरीबी एवं भूख से नहीं मर रहे होते। सरकारी योजनाएं कई बार हर व्यक्ति के पास समान रूप से कई कारणों से नहीं पहुंच पाती और कई लोग इससे वंचित रह जाते हैं। इसलिए एक न्यूनतम आय यानी 'मुफ्त में पैसा देने की योजना' बेहद जरूरी है। इतिहासकार, लेखक एवं पत्रकार रूगर ब्रैगमैन ने इसी मुद्दे पर एक रिपोर्ट लिखा है जो उनके किताब यूटोपिया फॉर रियलिस्ट के एक अध्याय "यूनिवर्सल बेसिक इनकम" पर है। वह 7 वर्ष पहले भी इस विषय को उठा चुके हैं लेकिन कोरोना महामारी ने इसे नीड ऑफ द आवर बना दिया है।

जब उन्होंने पहली बार यूनिवर्सल बेसिक इनकम के बारे में लिखा था तब इस पर ध्यान नहीं दिया गया था और सब बहुत जल्दी से भूल गए थे। लेकिन अर्थशास्त्रियों और समाज शास्त्रियों ने कई बार इसके सबूत दिए हैं कि मुफ्त में पैसे देना सरकारी योजनाओं और परंपरागत समाधान  से अधिक प्रभावशाली हो सकता है। हाल के दिनों में इसकी अहमियत और भी बढ़ गई है।  राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भी अधिकतर अमेरिकियों को 1200 रुपए डॉलर के न्यूनतम आय देने के प्रस्ताव पर हस्ताक्षर किए। वहीं अन्य राजनीतिक पार्टियों के चुनावी मुद्दों में भी यह काफी चर्चित हो रहा है।

कई बार नेताओं और नीति निर्माताओं को लगता है कि मुफ्त में पैसा देना फिजूल है और लोग इसे बर्बाद करते हैं। यह एक धारणा बन चुकी है कि जिनके पास पैसे नहीं होते वह पैसों का नियंत्रण करना नहीं जानते या फिर मुफ्त में दिए गए पैसे लोगों को आलसी बनाते हैं। लेकिन यह समय अविश्वास जताने का नहीं है अविश्वास हमें महंगा पड़ सकता है। लेकिन कई प्रयोग और उदाहरणों के बाद यह साबित होता है कि गरीबी हटाने का सबसे बेहतरीन उपाय है - गरीबों को पैसा देना।

कई सफल प्रयोग 

लंदन में 2009 में 13 बेघर लोगों पर यह प्रयोग किया गया था। यूके डिपार्टमेंट फॉर कम्युनिटीज़ एंड लोकल गवर्नमेंट के रिपोर्ट एविडेंस रिव्यू ऑफ द कॉस्ट ऑफ होमलेसनेस (2012) के अनुसार एक बेघर आदमी के कारण सरकार का हर वर्ष करीब $650,000 का खर्चा होता है। यह खर्च उनके, रहने, खाने, चोरी- लड़ाई आदि से हुए नुकसान में भरपाई, स्वास्थ्य सेवाएं, बेघरों के लिए योजनाएं और अल्पकालिक मकान मुहैया कराने और कई अन्य कारणों से होते हैं। 

लंदन के एक संगठन ब्रॉडवे ने उन सभी बेघरों के लिए रहने-खाने और सभी सुविधाओं के साथ हर महीने $3000 देने का फैसला किया, वह भी बिना किसी शर्त के। यह उन पर था कि वह पैसे कैसे खर्च करते हैं, बस उनसे एक सवाल पूछा गया कि उन्हें किस चीज की जरूरत है। किसी ने कहा उसे टेलीफोन चाहिए तो किसी ने डिक्शनरी, तो किसी को कानों की मशीन।
अधिकतर कम खर्च ने वाले लोग थे और 1 साल में औसतन प्रति व्यक्ति ने केवल 968 डॉलर ही खर्च किए।
"साइमन, जो ड्रग्स के नशे में रहता था, उसने गार्डनिंग क्लासेस लेनी शुरू कर दी थी और अपने परिवार के पास वापिस जाने की भी सोच रहा था।"
डेढ़ साल के बाद 13 में से 7 लोगों के सिर पर छत थी, दो अपार्टमेंट में शिफ्ट होने वाले थे और तकरीबन सभी अपनी जिंदगी को पूर्ण रूप से बदल चुके थे। जैसे कुकिंग क्लासेस लेना, नौकरी शुरू कर देना, सुधार गृह में जाना, परिवार से मिलने जाना आदि। एक सामाजिक कार्यकर्ता ने कहा कि आखिरकार इन सब को पैसे ने है सशक्त किया है और इनपर 1 साल का खर्चा केवल $60,518 था, जिसमें कार्यकर्ताओं के वेतन भी शामिल हैं। यानी सरकारी खर्चे $650,0000 से कहीं ज्यादा नीचे। इस प्रयोग को और भी बड़े स्तर पर आगे बढ़ाया गया। अर्थशास्त्रियों ने माना कि बेघर गरीबों पर पैसा खर्च करने का सबसे अच्छा तरीका है उन्हें पैसे दे देना।

अगला उदाहरण केनिया के बर्नार्ड ओमोंडी का है जो पत्थर की खदान में $2 प्रतिदिन कमाते थे। उनके खाते में $500 यानी उनके साल भर की कमाई मुफ्त में डाल दी गई। कुछ महीनों बाद जब न्यूयॉर्क टाइम्स के पत्रकार वहां गए तो उन्होंने देखा कि ओमोंडी का पूरा गांव मानो लॉटरी जीत गया हो। घरों की मरम्मत हो चुकी थी, और लोगों ने छोटे-छोटे कारोबार शुरू कर दिए थे, ओमोंडी ने भारत से आयातित बजाज की बॉक्सर मोटरसाइकिल खरीदी थी जिससे वह टैक्सी सेवाएं देने लगे और प्रतिदिन 6 से 9 डॉलर यानी पहले से करीब 3 गुना कमाई करने लगे।
इस योजना को सार्थक करने वाले संगठन गिव डायरेक्टली के प्रमुख माइकल फाए ने कहा " हमें नहीं पता गरीबों को किस चीज की जरूरत है लेकिन वह जानते हैं कि पैसों का इस्तेमाल कैसे करना है।"  एमआईटी के एक शोध के अनुसार डायरेक्ट के पैसे वितरण के बाद लोगों के आय में 38 परसेंट फ़ीसदी की बढ़ोतरी, खाद्य पदार्थों में 58 फ़ीसदी बढ़ोतरी और बच्चों के भूखे रहने के दिनों में 42 फ़ीसदी की गिरावट आई।
इसके अलावा  2008 में युगांडा में ऐसे ही प्रयोग के तहत 12,000 लोगों (16 से 35 वर्ष की उम्र के) को $400 दिए गए और बदले में एक बिजनेस प्लान मांगा गया। 5 वर्ष बाद नतीजे एकदम चौंकाने वाले थे।  लोगों की आय में 50 फ़ीसदी वृद्धि हो चुकी थी और उन्होंने पढ़ाई और उद्योग और अन्य कई क्षेत्रों में पूंजी लगाई जिसके बाद उनको नौकरी पर रखने की संभावना में 60 फ़ीसदी बढ़ोतरी हुई। उसके बाद फिर से महिलाओं को $150 दिया गया और इस बार भी पूर्ण रूप से बदलाव देखा गया। महिलाओं की आय में 100 फ़ीसदी वृद्धि देखी गई।

इन योजनाओं के बाद समाज में कई बदलाव देखे गए। जैसे कुपोषण, शिशु मृत्यु,  अपराध, पलायन और टीनेज प्रेग्नेंसी (काम उम्र के युवाओं का गर्भ से होना) में भारी कमी आई, वहीं लिंग समानता, आर्थिक सुधार स्कूलों में अच्छा प्रदर्शन, बालिकाओं के स्कूल जाने की संख्या, स्वास्थ्य, कर संग्रह और लोगों की आय में बहुत तेजी से बढ़त हुई। कई मामलों में पैसे कुछ शर्तों के साथ दिए गए। लेकिन शर्त या बिना शर्त, तरीके दोनों ही प्रभावशाली रहे। सबसे बड़ी बात यह है कि इसका खर्चा सरकार की योजनाओं से काफी कम था।

सरकारों ने जब गरीबों को पैसे देने के बदले उनके लिए कई योजनाएं और क्लासेस देने की शुरुआत की इससे ज्यादा कुछ हासिल नहीं हुआ। जोसेफ हनलों  ने अपनी किताब जस्ट गिव मनी टू द पुअर में कहा है , "गरीबी का मतलब है पैसे का ना होना इसका यह मतलब नहीं है कि लोग बेवकूफ हैं।"

लोगों के पास पैसे जाने के बाद उन्होंने इसे केवल उन्हीं चीजों पर लगाया जो उनकी आधारभूत जरूर  थी ना कि नशे और अन्य बर्बादी में। वर्ल्ड बैंक के एक शोध में पाया गया था कि इन प्रयोगों के बाद लैटिन अमेरिका, अफ्रीका और एशिया में 82% मामलों में तंबाकू और अन्य नशा करने वालों की संख्या और घटी ही थी।
यहां तक कि लाइबेरिया में शराबियों, गंजेड़ीयों और अपराधियों को ही $200 दिए गए थे लेकिन उन्होंने भी इसे बर्बाद नहीं किया। तो अगर ऐसे लोगों ने पैसा बर्बाद नहीं किया तो और कौन करेगा?

यूटॉपियन लेकिन व्यावहारिक
photo:habitat for humanity UK


यह धारणा कोई नई नहीं है। इतिहासकार थॉमस मूर ने 1510 ईस्वी में ही अपनी किताब यूटोपिया में इसका जिक्र किया था। इसके अलावा अन्य कई इतिहासकार, नोबलिस्ट, समाजशास्त्री और अर्थशास्त्री जैसे  थॉमस पेन, जॉन स्टुअर्ट मिल, एचजी वेल्स, जॉर्ज बर्नार्ड शॉ, जॉन केनेथ गलब्रैथ,  जैन टिनबर्जन, मार्टिन लूथर किंग, बर्ट्रेंड रसल और मैट जोलिंस्की आदि भी इस मुद्दे को उठा चुके हैं।  यहां तक कि यूनिवर्सल डिक्लेरेशन ऑफ ह्यूमन राइट्स 1948 के 25 वें  आर्टिकल में भी इसका जिक्र है कि एक दिन यह जरूर लाया जाएगा। वह भी बिना किसी भेदभाव के, हर एक नागरिक को, चाहे वह विकासशील देश हो या विकसित देश यह हर व्यक्ति का अधिकार होगा।

यूनिवर्सिटी ऑफ मनिटोबा की प्रोफेसर एवलिन फॉरगेट ने 2004 में पहली बार 35 वर्ष पहले  कनाडा में हुए यूनिवर्सल बेसिक इनकम के प्रयोग के बारे में सुना, जिसके दस्तावेज 200 डब्बो  में बन्द कहीं पड़े हुए थे । 2009 में आखिरकार उन्होंने उन दस्तावेजों को खोज निकाला। इन दस्तावेजों के अनुसार 1973 में कनाडा में मीनकम योजना अथवा पायलट प्रोजेक्ट के तहत डॉफिन नाम के गांव में करीब हजार परिवारों को न्यूनतम मासिक आय दे देने की बात बताई गई है। इस दस्तावेज में अन्य कई परिवारों समेत हेंडरसन परिवार (जिसमें 4 लोग थे) के बारे में पूरा ब्यौरा है। इस परिवार को हर वर्ष $19000 दिया जाने लगा। लोगों का निगरानी भी रखी जा रही थी कि वह यह पैसा किस तरह से खर्च करते हैं। करीब  4 साल तक सब कुछ ठीक चला। लेकिन जैसे ही नई सरकार की स्थापना हुई उन्होंने इस प्रयोग को गैरजरूरी और खर्चीला बताते हुए बंद कर दिया। इस पूरी योजना में आज के डॉलर के हिसाब से 83 मिलीयन डॉलर रुपए का खर्चा हुआ था। कई शोधकर्ताओं को लगा कि अगर वह इस पर बार-बार विश्लेषण करेंगे तो बहुत खर्चा आएगा और गलत साबित हुए तो उन्हें शर्मिंदगी भी महसूस होगी। लेकिन प्रोफेसर फॉरगेट ने जब उसका विश्लेषण किया तब इसमें साफ-साफ ये नतीजा आया है कि गांव में गरीबी खत्म हुई और सरकार के अगल बगल के गांव पर खर्चे से कम खर्च इस गांव पर किए गए क्योंकि यहां स्वास्थ्य संबंधी दिक्कतों से लेकर कई अन्य दिक्कतें इस योजना के बाद सुधरी थी। कुछ ऐसा ही वाकया अमेरिका के चार अन्य जगहों पर किए गए प्रयोग में हुआ जहां बाद के विश्लेषण में पता चला कि लोगों के काम के घंटों में कोई कमी नहीं आई थी यानी पैसे ने उन्हें आलसी नहीं बनाया था बल्कि उन्होंने यह पैसा अपने पढ़ाई लिखाई और काम पर लगाया।

अमेरिका में 1968 में अर्थशास्त्रियों और समाज के कई वर्गों के आह्वान के बाद 1970 में अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन ने फैमिली असिस्टेंट प्लानिंग योजना संसद में पेश किया। इसे व्हाइट हाउस में तो अनुमति मिल गई लेकिन वित्तीय समिति ने इसे व्यवहारिक और अत्यधिक खर्चीला मानते हुए रद्द कर दिया।  सिएटल में हुए प्रयोग पर 1978 में एक गलतफहमी पैदा करने वाले आंकड़ों की खोज हुई जिसके तहत यूनिवर्सल बेसिक इनकम देने के बाद वहां तलाक 50 फ़ीसदी बढ़ गया। 10 साल बाद पता चला कि यह आंकड़े गलत थे। 
उम्मीद से कम खर्च
यह भले ही यूटोपियन सपना लगे लेकिन  पूर्ण रूप से व्यावहारिक है। अमेरिका में इस पर कुल 175 बिलियन डॉलर का खर्च यानी जीडीपी का केवल 1% खर्च होगा वहीं इराक़ और अफगानिस्तान में युद्ध पर यह करीब 4-6 ट्रिलियन डॉलर खर्च करता है। यह तकरीबन सभी देशों के लिए कारगर और व्यावहारिक है। इसका सबसे अच्छा उदाहरण अलास्का है जहां हजार रुपे डॉलर प्रति व्यक्ति की यूनिवर्सल बेसिक इनकम दी जाती है और वहां अमेरिका के किसी भी 
राज्य से कम आय असमानता है।

पूंजीवाद दिखाए उदारता

यही समय है जब पूंजीवादी के जरिए जो पैसा कमाया गया है उसका सही उपयोग हो और पूंजीवाद अपना उदार रूप दिखाकर पूर्वजों के मेहनत का वेतन सबको दे। क्योंकि आखिरकार सब कुछ बनाने में सभी का हाथ है और इन पैसों पर सभी का बराबर अधिकार है। और यूनिवर्सल बेसिक इनकम इसे लोगों के साथ साझा करने का मौका दे रहा है। भले ही बड़े स्तर पर करना मुश्किल हो लेकिन यह युटोपियन योजना छोटे-छोटे प्रयोगों के साथ आगे बढ़ाई जा सकती है और एक दिन पूरे विश्व में लागू की जा सकती है।


















भयानक है भीड़ में औरत होना

📷the logical indian

क्या होता है भीड़ में औरत होना?
महीने के दर्द से तड़पते रह जाना,
लेकिन किसी से बता नहीं पाना,
खून से सना वस्त्र लपेटे, समेटे अपना अंग,
सिकुड़ जाना खुद में,
लोंगों को पता चलने से डर जाना,
भयानक है, भीड़ में औरत होना।

क्या होता है भीड़ में औरत होना?
गर्भ से है, फिर भी मीलों है चलते जाना,
बेइंतहा तकलीफ बर्दाश्त करते जाना,
कहीं, पीछे न छूट जाए,
सड़क पर बच्चे को जन्म देने के बाद,
जन्म-मरण के इस खेल का पात्र बन,
पैदा होते ही उस नवजीवन को खो देना,
भयानक है, भीड़ में औरत होना।

क्या होता है भीड़ में औरत होना?
किसी की गीदड़ सरीखी नजरों से पलकें झुका लेना,
किसी के अभद्र शब्दों को सुनकर भी अनसुना कर देना,
तो कभी अपने स्तन की ओर बढ़ते बाजुओं को
ढकेलते हुए अपने अस्तित्व को कोसना,
अपने औरत होने के मलाल पर सिसकियां भरना,
भयानक है, भीड़ में औरत होना।
-अनुराधा

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Sunday, May 24, 2020


क्या ऑनलाइन कंटेंट हमारे भीतर अभद्रता ठूंस रहें हैं?

चाहते हुए भी मैं अक्सर गाली दे देती हूं

" खुद को एक नारीवादी मत कहना अगर तुम गाली देकर सभी औरतों की और खुद की बेइज्जती करती हो।" मेरे एक दोस्त ने जब मुझसे यह कहा तो मेरे पास उसके इस बात का कोई जवाब नहीं था।

मुझे बुरा लगा और मैंने फैसला किया कि आज से गाली नहीं दूंगी। लेकिन हमेशा की तरह इस बार भी गाली देते समय भूल गई और ऐसी कसम कम से कम 100 बार खा चुकी हूं। ऐसा लगता है कि भद्दी गालियां देना हमारे जीवन का एक हिस्सा बन चुकी है।


मानो लोग जब गालियां देते हैं तो एक तरह के शक्ति, तृप्ति और विजय का एहसास होता हो।
हम खुश होते हैं, गाली देते हैं; हम गुस्सा होते हैं, गाली देते हैं; हम परेशान होते हैं, गाली देते हैं। लेकिन शायद हम पूरी तरीके से इसके जिम्मेदार ना हों। यह आचरण हमारे जीवन का हिस्सा बन चुका है जिसका एक कारण है- मनोरंजन सामग्री के जरिए रोज इस भाषा का उपभोग।


Image: Pataal Lok
हाल ही में आयी एक वेब सीरीज पाताल लोक  इंटरनेट पर जमकर सुर्खियां बटोर रहा है और लोगों को खूब पसंद रहा है। आनी भी चाहिए, गज़ब का प्लॉट और कहीं हद तक सच्चाई से रूबरू कराता हुआ सीरीज है। सब कुछ एकदम परफेक्ट है, सिवाए एक चीज के - गैर जरूरी गालियों से लबालब सीन्स। मेकर्स को पता है कि गालियां और अन्य नेगेटिव चीजें लोगों को आकर्षित करती हैं। यही कारण है की सैक्रेड गेम्स से लेकर मिर्जापुर में लगभग हर सीन में भर भर के गालियां देखने को मिली। पाताल लोक में कुछ शब्द इतने अभद्र हैं जिसे किसी को मुंह से बताया भी नहीं जा सकता। यह शायद मैंने गांव में ही अपने बचपन में सुनी थी।

Mirzapur

फिल्म गैंग्स ऑफ वासेपुर  की सफलता ने लगता है गालियों के ट्रेंड को और बढ़ावा ही दिया है। लेकिन एक तरह से यह अभद्र भाषा की संस्कृति को पनपने में बड़ी भूमिका निभा रहे हैं। क्या यह चिंता का विषय नहीं है? अगर एक छोटा सा बच्चा कहता है "चल भी**के, मा***!
पिछले हफ्ते एक यूट्यूबर और टिक टॉकर के बीच हुई जुबानी जंग के परिणाम स्वरूप लाखों लोगों ने ट्विटर पर #आईसपोर्टकैरीमिनाटी के जरिए यूट्यूबर को भारी सपोर्ट किया। यहां तक कि दो-तीन दिन में ही उनका सब्सक्रिप्शन 15 मिलियन के पार चला गया लेकिन इस बीच हमने फिर से गालियों को ग्लैमराइज करते हुए ऐसे लोगों को बढ़ावा दिया जो अभद्र टिप्पणी करके और गंदी गालियां बक कर पैसा कमाते हैं। ऐसे मामले आए जब एलजीबीटी के सदस्यों को उस वीडियो में इस्तेमाल हुए शब्दों से पुकारा गया, उनकी बेइज्जती की गई।
और सिर्फ यूट्यूबर ही नहीं कई स्टैंड अप कॉमेडियंस और तथाकथित इनफ्लुएंसर्स से इंटरनेट भरा हुआ है जिनके कंटेंट हम रोज़ कंज्यूम करते हैं।


left: Amir Sidhhiqui, right:Carry Minati

पहले मैं अपनी गलती को छुपाने के लिए बोल देती थी, दिल्ली से हूं b**** लेकिन बाद में बुरा लगता है और फिर से वही काम करना,  'इससे बड़ी हाइपॉक्रिसी तो  कोई नहीं है।
मैंने यह लेख इसलिए लिखा क्योंकि मुझे लगता है कि कैमरे के बाहर की दुनिया में शायद उससे भी ज्यादा गालियां पड़ती हो लेकिन उसे बार-बार ऑनस्क्रीन दिखाकर हम इसे फैशन बना रहें हैं। और ये दिन दिन पहले से भी ज्यादा अभद्र होते जा रहें हैं।